राहों में देखी है
कुछ खामोश निगाहें
जो देती है जवाब
मेरे कुछ अनसुलझे सवालों के,
समझा लेता हूँ मन को
एक तू ही नहीं
इस धरती पर
जो एक ऐसा शोला
दिल में लिए जीता है
जो न तो जलाता है
न जीने देता,
सिर्फ तड़पाता है
सिर्फ तड़पाता है
कुछ मुरझाये हुए
नाउम्मीद चेहरे
थक चुके है जो
जीवन के अथाह संघर्ष से,
जो कुछ भी न बदल सका,
पढ़ रहा हूँ मैं उन आँखों में
वो सब
जो मेरी भी तड़प और छटपटाहट
का है कारण,
मुझे उनमे अपना
अक्ष नज़र आता है,
मेरी ही तरह
वो भी तलाश रहे है,
इस तेजाबी भीड़ से दूर
एक सकून भरा कोना,
देख सकता हूँ मैं
उनकी आँखों में
वो गुस्सा और वो दर्द,
जो साक्षी है उस अन्याय का
जो पल पल
इस समाज में
उनके साथ हुए,
मेरी ही तरह
कुछ डरी और सहमी आँखें
इन असुरों के राज में
असुरक्षित समाज में
उनमे पैदा हुआ ये डर
न जाने किस पल
उनमे पैदा हुआ ये डर
न जाने किस पल
बन जायेगे वो
काल का ग्रास,
वापस घर पहुचेंगे या
नहीं,
घर से निकलते हुए
आँखों झलकता
एक सवाल,
पथरा सी गई है आँखें
सह सह के दर्द और तड़प
की हर मार,
आँखों ने नम होना
छोड़ दिया है
थक चुकी है
आंसू बहा बहा के,
*******राघव विवेक पंडित
ये आँखें क्या-क्या अनदेखा भी देख जाती हैं .......
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