Tuesday 7 February 2012

मेरी प्रेयसी

मेरी देहलीज़ तेरी
महक पहचानती है,
मेरे दरवाज़े कि चौखट
तेरा स्पर्श पहचानती है,

मेरे आँगन की तुलसी भी
तेरी आहट पहचानती है,

मेरे आँगन कि मिटटी भी
तेरी खुशबू जानती है,

तुम जब मेरे आँगन में
इठलाती चलती हो तो
तुम्हारी पाजेब की झनक झनक
के संगीत से मेरे
घर का हर कोना
झूम उठता है,

मेरा शयन कक्ष तुम्हारे
जिस्म की
महक पहचानता है,
तुम्हारे हर स्पर्श को वो जनता है,

तुम हो मेरी गृहसवामिनी, मेरी दामिनी,
मेरी संगिनी, मेरी प्राणप्यारी,
लक्ष्मी रुपेण,
मेरी गृहलक्ष्मी
मेरी धर्मपत्नी





******राघव विवेक पंडित 

No comments:

Post a Comment