Friday 18 May 2012

हम अनजान नहीं दर्द से
पर सदा साथ नहीं रखते,

हंस लेते दर्द छुपा के
दर्द की बात नहीं करते,

हमसे दुश्मन भी परेशान है
हम दर्द का इज़हार नहीं करते,

हम रो लेते है अकेले में
पर दुश्मन को भी नाराज़ नहीं करते,

*******राघव विवेक पंडित


पढाई पूरी कर
गाँव में खेत की
मेढ़ पर बैठ
में सोच रहा था उन सपनो के बारे में
जो मैंने बचपन से जवानी
तक देखे
अब समय था उन सपनो को
सार्थक करने का,

लेकिन मेरा दायित्व
मुझे पहले
माँ बाप की उन उम्मीदों
पूरा करने के लिए
मजबूर कर रहा था
जो वर्षों से में उनकी
आँखों में देखता आ रहा था

माँ बाप ने खून पसीना एक कर
जो कमाया
मेरी पढाई पर खर्च किया
बहन की शादी के लिए जो
पैसे जमा किये
वो सब भी मेरी पढाई में
खर्च हो गए,
पाई पाई जमा की थी
कुआँ खुदवाने को
वो सब पूंजी भी पढाई
की भेंट चढ़ गई,
उसके अलावा कुछ लोगों से भी
क़र्ज़ लिया था
अपने सपनो को भूल
मेरे सपनो को पूरा करने में
पाई पाई लगा दी
इस उम्मीद पर
एक दिन ये हमारे सभी
सपने पुरे करेगा
अब समय आया था
उन्हें पूरा करने का,

बैठे बैठे
सोचते सोचते
शाम ढल गई
मैं निर्णय न ले पाया
कि मैं अपने सपने पूर्ण करूँ या
माँ बाउजी कि उम्मीद पर
खरा उतरूं,

मैं रात को भी
एक पल न सो पाया
सुबह जाना था शहर
सुना था वहां होते है सभी के
सपने पूर्ण,

सुबह जब जाने लगा
तो माँ बाउजी और
मेरी छोटी बहन द्वार पर
मुझे विदा करने को
आँखों में आंसू लिए खड़े थे,
माँ बाउजी ने मुझे विदा करते हुए
सिर्फ एक ही बात कही
बेटे अपना ध्यान रखना,

बहुत सी चिंताओं का
बोझ काँधे पे लिए
माँ बाउजी मुझे
अपना ध्यान रखने के लिए
कह रहे थे
कोई दुःख चिंता
उन्होंने मुझसे आज भी नहीं बांटी,
धन्य है मेरे माँ बाउजी,

जो निर्णय
मैं पूरी रात
पुरे दिन में न ले सका
वो निर्णय मैंने अपनी
विदाई के समय एक पल
में ले लिया
कि मैं पहले अपने माँ बाउजी के
सभी सपनो को पूर्ण करूँगा,

*******राघव विवेक पंडित



लम्हा लम्हा गुजरा
भुला न सका तुम्हे,

दर्द बढता गया मेरा
बता न सका तुम्हें ,

अश्क पलकों पे ठहरे
पर गिरा न सका उन्हें,

मैं प्यार करता हूँ तुमसे
ये जाता न सका तुम्हें,


           
             
आ फलक पे ले चलूँ
रकीबों के जहाँ से दूर,

मेरे सिवा न देखे कोई
हर बुरी निगाह से दूर,

चाँद तारों में हो आशियाँ
इस संगदिल जहाँ से दूर,

करूँ इतनी मुहब्बत तुझसे
अश्क रहे तेरी पलकों से दूर दूर,

*******राघव vivek pandit


घर के कुछ ह्रदय विहीन
पुरुषों और स्त्रियों ने
मजबूर कर दिया
एक माँ को
उसके पेट में पल रहे
उसके पूर्ण विकसित
अबोध शिशु की
हत्या को
उसकी साँसे छिनने को
सिर्फ इसलिए
कि उसका लिंग
लड़की था
लड़का नहीं

माँ सिसकती रही
तडपती रही
न आई उस पर किसी को दया,
माँ ने फिर गुहार लगाईं
एक बार मुझे
उसके मृत शरीर को ही दिखा दो
देखते ही माँ के
ह्रदय पे छप गई
उसकी फूल सी कोमल
परियों से सुंदर
राजकुमारी के
मुख की सुंदरतम तस्वीर
हाथ पाँव की छाप,

माँ न भूल पाई ताउम्र
अपनी मासूम बच्ची का मुख
बातों ही बातों में
जिक्र कर देती थी
उसके नयन नक्श का,

जब भी किसी
सुंदर बच्ची को देखती
तो सोचती थी
ऐसी ही होती
अगर उसे न मारा होता,

*******राघव विवेक पंडित


Friday 11 May 2012


 
तुम कौन हो  
रात की रानी 
जो चाँद और तारों से सजी 
डोली में आती है 
सिर्फ रात में, 

या रात की रानी के वृक्ष का
वो पुष्प
जो अपनी महक से
मंत्रमुग्ध कर 
देता है रात की तन्हाई को,

या तुम हो 
जुगनू 
जो अपनी उड़ान के साथ 
पल पल रोशन करता है 
स्याह रात को ,

या तुम हो 
वो चिराग  
जो रात के अंधरे में
पल पल खुद को जला 
भटकों को राह दिखाता है,


              *******राघव विवेक पंडित  



Wednesday 9 May 2012

बिक गई आत्मा
बिक गया परमात्मा
बिक गया ये शहर
बिक गया धर्मात्मा,

बिकता है बस झूठ यहाँ
सच का हो गया खात्मा,
दूसरों हक छीन के
जब रोटी कमाई जाती है
आत्मा की उसी समय
अर्थी उठाई जाती है,

चील कौओं की मजबूरी
खाना मुर्दा जानवर,
बदतर है इंसान
जीवों से
खा रहा जिन्दा आदमी,

कोई रोये
आंसू बहाए
मरे कोई तड़पकर,
बेअसर है हर दर्द
जब मर चुकी आत्मा,

आत्मा के मरते ही
मर गई इंसानी भावना
मांस का चिथड़ा सा
घूमता है इंसान
अब यहाँ वहां,

*******राघव विवेक पंडित




Thursday 3 May 2012

दर्द दिल में न हो
तो कलम कैसे
दर्द लिख पाएगी,

दर्द दिल में न हो
तो कैसे लफ्जों में
दर्द आता है,

जख्म खाए बगैर
कैसे कोई
जख्मी दिल का
दर्द बयां कर पायेगा,

लहू का एक
कतरा बहाए बगैर
कैसे कोई
मुहब्बत की रुसवाई पर
लिख पायेगा,

हम दीवानों ने
जब भी दर्द दिल का बयाँ किया
जमाने ने उसे दिल्लगी बना दिया,

*******राघव विवेक पंडित


हटा मत चेहरे से जुल्फें
तुझे देख नहीं
झुकती पलकें,

चाँद जैसे
बदरी से हो घिरा,
नीले आसमां में
जैसे बादल बिखरा,

तू समेटें क़यामत
चेहरे पे
लाखों जुल्फों के
पहरे में,

चेहरे की तेरे
मादकता
और बढाती है जुल्फें,
जो देखे मदमस्त
हो जाये,
नशा और बढ़ाती है
जुल्फें,

*******राघव विवेक पंडित

सुबह की मीठी मीठी धूप
कडवी हो जाती है
जब सुबह के अखबार में
मासूम लोगों की
हत्या
मासूम बच्चों का
अपहरण
और
स्त्रियों पर अत्याचार की
खबर आती है,

अखबार पढ़ते पढ़ते
मुझे अपना घर
एक भयानक शहर में
नज़र आता है
और सुबह की मिठास
लगती है एक मृग मरीचिका,

आजकल अखबार में
खबर होती है शहर में
होने वाले मातम की,
नेताओं के घोटाले की,
गरीब के भूखे बच्चों के
खाली प्यालों की,
ये सब देख आसमान भी
घबराता है फिर भी
कहीं से छोटी छोटी
खुशियों के साथ
मीठी सुबह लाता है.....

*******राघव विवेक पंडित

सितमगर है वो मुझे छोड़ जायेंगे
एक पल में सभी रिश्ते तोड़ जायेंगे,

मेरे अश्कों का न उन पे असर होगा
यू ही पलकों पे अश्क छोड़ जायेंगे,

देखेंगे न वो हमें मुड़कर कभी
इस बेरुखी से शहर छोड़ जायेंगे,

वो न देखेंगे ख़्वाबों में भी हमें
इस कदर नींद पर कहर बरपायेंगे,

महफ़िल में हमारा जब कोई नाम लेगा,
वो बेरुखी से, महफ़िल ही छोड़ जायेंगे,

*******राघव विवेक पंडित
दिल टुटा
आहट न हुई
आंसू आये आँखों में
सहमे से
पर ठहर गए पलकों पे
सुख गए वही
बह न सके,

जुबां भूल गई
रोना चिल्लाना, हँसना
बची तो सिसकियाँ
जिनकी आवाज़
दब के रह गई
टूटे हुए दिल के
सन्नाटे भरे अंधरे में,

*******राघव विवेक पंडित


आसमां से टूटे तारे को देखना
एक अपसकुन का
अहसास
शायद कुछ बुरा होने को
मेरे साथ
लेकिन शहर में
हर ओर रुदन और बैचैनी है
क्या सभी ने देखा
टूटता तारा,

क्या शहर में होने वाली
हत्या, चोरी , डकैती
का कारण
टूटता तारा देखना,

एक अंध विद्यालय को
आतंकियों ने बम से
उड़ा दिया
उन्होंने तो नहीं देखा था
टूटता तारा,

एक अनब्याही माँ
नवजात शिशु को
सड़क पर छोड़ गई
उस मासूम शिशु ने
कब देखा
टूटता तारा,

मैं कैसे विश्वास करूँ
जो तारा सारी उम्र
रौशनी देता रहा,
उसका टूटना
किसी को कैसे
दुःख दे सकता है,

*******राघव विवेक पंडित

कोई तन्हा कब तक दिल को संभाले
जिन्दगी बीती अंधेरों में, हुए न उजाले,

इस उम्मीद पे लड़ता रहा मुश्किलों से
कभी होगी अपनी सुबह और उजाले,

तलाश की बहुत, न दिलबर मिला कोई
पोंछे जो आंसू, इन अंधेरों से निकाले,

जो मिला सौदा किया हमारे जज्बातों का,
कोई मिले ऐसा, जो हमें दिल से भी लगा ले,

यारब कब होगी सुबह, कब होंगे उजाले,
दुनिया से दर्दों गम के, तू अँधेरे उठा ले ,

*******राघव विवेक पंडित
मत दो आवाज़
मैं थक चूका हूँ
जिन्दगी के हर ख्वाब
से जग चूका हूँ,

हर ख्वाब ख़त्म
हो चूका है
जो देखा था मैंने
रुपहली दुनिया में,
हर चमक पीछे स्याह
अँधेरा है,

*******राघव विवेक पंडित

कब तक
मैं मिलता
बिछुड़ता रहूँ
फैले दामन को
अपने समेटता रहूँ,

बचपन से ही
मुश्किलों से
मैं अकेला
लड़ता रहा,
अकेले ही अपनी
राह पर
चलता रहा,

जिन्दगी से अकेला मैं
कब तक लडूं,
अपने दिल की लगी मैं
किस से कहूँ,
शायद अकेलापन ही
मेरी तकदीर है
मेरे पुर्व्जनम के
दुष्कर्मों की
सजा की जंजीर है,

*******राघव विवेक पंडित


एक भ्रष्ट नेता की जीत
शहर की सड़कों पर
ख़ुशी मनाते
उसी की तरह के
भ्रष्ट और चापलूस लोग,
हरामखोर और आवारागर्द
लोगों की सड़क पर भीड़,
भ्रष्ट नेता के पीछे
जय जयकार करता
फूलमाला पहनाता
अपराधियों का समूह,

भीड़ से कुछ
दुरी पर खड़े कुछ
हाथ मलते
अपने गुस्से को दबाते
पथराई आँखों से देखते
मजबूर और लाचार लोग,
अपने नसीब को कोसते
और सोचते
फिर सहने पड़ेंगे इनके जुल्म
फिर अभिशाप बन जायेगी
बहन बेटियों की सुन्दरता,
फिर खाया जाएगा
हमारी बदहाली मिटाने के
नाम पर पैसा,

शायद हमारी किस्मत में ही
इनके अत्याचारों से घुट घुट के
जीना और मरना है,
जाने कब खत्म होगी इन
अत्याचारी और कुशाशित
नेताओं की भीड़,

जाने कब तक पालते रहेंगे
नपुंशक बन हम
इन पिशाचों को,

*******राघव विवेक पंडित
कब तक यु ही बेकरार दिल संभालूं
कोई हमनशी मिले तो दिल लगा लूं

जो कोई दे दे तडपते दिल को राहत
उसे यूँ तड़पने का सबब बता दूँ,

जो कोई दे मुहब्बत, मुझ दीवाने को
उसी पे दिल की दौलत मैं लुटा दूँ,

जो कोई दे दे अपना हाथ मेरे हाथों में
उसी को मैं अपना हमसफ़र बना लूँ ,

*******राघव विवेक पंडित


फूलों में तुम बहारों में तुम,
फलक पे चमकते सितारों में तुम

सांसो में तुम, धडकनों में तुम,
निगाहों में तुम, नजारों में तुम,

ख्वाब भी तुम, हकीकत भी तुम,
वादों में तुम, इरादों में तुम,

दर्द भी तुम, मरहम भी तुम,
जिन्दगी भी तुम, जन्नत भी तुम,

*******राघव विवेक पंडित



छोटी सी नन्ही परी
छोटे छोटे सपने
हाथों में गुडिया
ख्यालों में अपने
निश्चल, निष्कपट
मासूम सी करती है
मीठी मीठी बातें,

सबकी प्यारी
सबसे न्यारी
इस घर की
वो राजकुमारी,
दादा दादी. नाना नानी
इनके दिल की
वो है महारानी,

सबके मन को भावें वो
सबको प्यार से बांधे वो,
पापा जब
दफ्तर से आते
खाना उन्हें खिलाती वो,

पहले पूछती
गुस्सा तो नहीं करोगे
फिर दिन में की सभी
शरारतें
पापा को बतलाती वो,

मम्मी की मदद की कोशिश में
सारे काम बिगाड़े वो
जब मम्मी डाटन को आये
पापा को शिकायत लगाए वो,

सबकी आँखों सकूँ वो
उसके नन्हे क़दमों से
रोशन रहता
मेरा घर मेरा संसार,

*******राघव विवेक पंडित

मेरा हर लफ्ज दर्द में डूब जाएगा
राहत ऐ गम तेरा जो साथ छुट जाएगा,

मेरा हर अश्क आँखों से गिरने को तडपेगा
दिल तरसेगा रोने को, पर रोया भी न जाएगा,

तुम करोगी अपना आबाद नया गुलिस्तान
और मेरा जर्द गुलिस्तान भी न रह जाएगा,

तुम न करोगी याद कभी भूलकर भी
मेरा दिल तुम्हे चाहकर भी न भूल पायेगा,


*******राघव विवेक पंडित
खामोश जुबां
मदहोश शमां
निगाहों से
मुहब्बत का जाम पिया
मदहोशी कुछ तुम पर छाई
कुछ मैं भी मदहोश हुआ
कुछ डूबी तुम मुझमे
कुछ में भी तुम में डूब गया
कुछ तुम में
सावन झूम गया
कुछ में भी
तड़प के बरस गया,

*******राघव विवेक पंडित

बट गया 

जमीं बट गई
आसमान बट गया
मुहब्बत भरा
ये जहान बट गया,

शहर बट गया गाँव बट गया
घर का एक एक 
समान बट गया,

माँ बट गई बाप बट गया
माँ बाप के सपनो का 
जहान बट गया,

कभी खेले थे जिस आँगन में
नीम तले भाई बहन 
उस आँगन की ईंट ईंट 
नीम का पत्ता पत्ता
और आसमान बट गया,
 
बेटी बट गई बेटा बट गया 
बेटी की चाहत का 
खुमार घट गया,

बट गया शहर 
ये जहान बट गया 
सितारों भरा ये आसमान बट गया
इंसानों में इंसानियत का   
भाव घट गया
इंसान बट गया 
भगवान बट गया, 


           *******राघव विवेक पंडित