ये मेरे शहर जैसे घर में क्या हो रहा है,
हर इंसान अपना सकूँ खो रहा है,
लालच की उसके इन्तहा हो गई
भागते भागते
जिन्दगी कहाँ खो गई,
हर इंसान एक लाश नज़र
आता है हँसता खेलता शहर,
अब दफिनो नज़र आता है,
******राघव विवेक पंडित
हर इंसान अपना सकूँ खो रहा है,
लालच की उसके इन्तहा हो गई
भागते भागते
जिन्दगी कहाँ खो गई,
हर इंसान एक लाश नज़र
आता है हँसता खेलता शहर,
अब दफिनो नज़र आता है,
******राघव विवेक पंडित
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