Monday 26 March 2012

बस तुम


मेरे सपनो के सागर में 
एक ही मोती है 
वो हो तुम,

मेरी आँखों में 
तुम इतनी
खुबसूरत  
तुम्हे देख
शर्म से छुप जाए 
चौदहवी का चाँद भी,

जुल्फें
इतनी घनेरी 
घटाएं जो देख ले 
बदल ले रास्ता,

आँखें 
इतनी नशीली 
जिसे एक नज़र देखो
वो होश खो दे,

तुम्हारे अधरों की
सुर्खी 
फीकी कर देती है
डूबते सूरज की 
लालिमा को,

तुम्हारे 
होठों से गाये
गीतों के सुर,
पीछे छोड़ देते है
सुरों के हर बंधन को,

तुम्हारे हाथों के 
स्पर्श को 
लालायित रहता है 
चमन का
हर एक गुलाब,

तुम्हारे पाँव के स्पर्श 
मात्र से 
आ जाती है
वीरानो में
बहार, 

तुम्हारे स्पर्श 
मात्र से 
धमनियों में
लहू हो जाता है
बेकाबू,

तुम्हारे आलिंगन का
सुखद अहसास,
सर्वोपरि है,
संसार के सभी सुखों से,


         *******राघव विवेक पंडित  





Friday 23 March 2012

मेरा गाँव


मैं गाँव से चला कुछ
ख्वाब सजाये 
वो दरिया 
वो पनघट 
वो बस्ती
शहर ने सभी भुलाए, 

कहाँ से चला
कहाँ आ गया मैं,
दर दर भटकता 
चला जा रहा मैं,

खुद से ही खुद का पता 
पूछता हूँ,
वो दरिया, वो पनघट,
वो नीम की ठंडी हवा 
पूछता हूँ,

भटकते भटकते
कहाँ आ गया मैं, 
गाँव को अपने देख
घबरा गया मैं,
चारों तरफ अँधेरा
और सन्नाटा, 
अब गाँव में लोग नहीं, 
रहते है  खंडहर 

मुझे देख खंडहरों से
आवाज़ आई 
क्या तू शहर से आया है 
तू ही बता 
जो शहर गए थे क्या 
वो आयेंगे 
या हम इंतज़ार में
यू ही बिखर जायेंगे,


उनके इंतज़ार में
माँ बाप के 
आंसू ही सुख गए, 
आँखे पथरा गई 
प्राण ही रूठ गए,

उन्हें कैसे बताऊँ 
शहर के पत्थर के जंगल में
मैं खुद पत्थर हो गया, 
मुझसे उस जंगल में
जो गाँव से गया था मेरे साथ 
वो इंसान कहीं खो गया,


               *******राघव विवेक पंडित 

Wednesday 21 March 2012

स्त्री


ह्रदय 
इतना कोमल जैसे 
पंखुड़ी गुलाब की,
 
आँचल 
इतना विशाल 
जिसमे है संसार के 
सभी जीवों और प्राणियों 
के लिए ममता,
सहनशक्ति 
धरा सी
सेकड़ों वर्षों से 
समाज के विभिन्न प्रकार के 
सेकड़ों प्रहारों को  
झेलती 
लेकिन अडिग 
अपने ममता रूपी
आचरण के साथ,

अपने बच्चों की
रक्षा के लिए जो रूप धरे
दुर्गा का,

अपनी धरती माँ की
रक्षा के लिए जो रूप धरे
वीरांगना लक्ष्मीबाई का,

समाज ने जिसे 
शोषण के साथ साथ दिए 
विभिन्न रूप और नाम
लेकिन किसी भी  
रूप और नाम में 
उसने न खोई अपनी पहचान 
ममतामयी की,

न विचलित कर सका 
समाज का बड़े से बड़ा 
प्रहार,
जितने जुल्म 
उस पर बढ़ते गए, 
उसकी सहनशक्ति भी
उतनी बढती गई,

उसकी हिम्मत 
पर्वत सी,
उसकी शक्ति असीमित,
जननी मानवीय शक्ति की, 

हम उसे किसी रूप में भी बांधे 
चाहे कहे माँ
बहन 
बेटी
पत्नी 
हर रूप में अपूर्ण है उसकी व्यख्या,
वो है धरा सी व्यख्या विहीन,


        *******राघव विवेक पंडित  



दो लफ्ज

तुम दो लफ्जों में बे बफा कह गए,
हम दो लफ्जों में उलझ के रह गए,

तुम दो लफ्जों में रिश्ता तोड़ गए,
हमें तनहा अकेला छोड़ गए,

हमारी खता, हम समझ न पाए ,
हम पल में सितमगर हो गए,

तुमको हम अपना खुदा कहते थे,
हमारे खुदा ही बेरहम हो गए,

हमारी हर एक सांस, तेरी वफ़ा का दम भरती है,
तुम ऐसे बेदर्द निकले, हमें ही बे वफ़ा कह गए,

*******राघव विवेक पंडित


दोस्ती और दर्द

मत दुखी हो मेरे दिल
जो कोई यार
दर्द दे गया,
अश्क बहा
दिल को समझा
तू कितना भी चाहे
उसे भुलाना
कभी भुला न पायेगा,

जो यार दे गया है
अश्कों का मौसम,
वही यार खुशियाँ का
मौसम भी लाएगा,
बह जायेंगे जब अश्कों में
गिले शिकवे
धुल जायेगा जब
दिल का मैल,
रात की तन्हाइयों में
जब अहसास होगा
अपनी गलतीओं का,
जब याद आयेंगे
साथ गुजारे
खट्टे मीठे लम्हे,

वो तडपेगा
मिलने को
बात करने को
तेरी एक झलक पाने को,
मीठे और कडवे लम्हों को
याद करने को,
उसे तेरी कडवी बातों में भी
अपनेपन की आएगी महक,

तेरी भी जुबान पे
उसके लिए होगी
कडवाहट,
लेकिन दिल में होगी
नन्ही सी प्यार भरी
सुगबुगाहट,
तू चाहकर भी अपनी
तड़प छुपा न पायेगा
जुबान से लेगा तू
किसी और का नाम
और उसका नाम
जुबान पर आएगा,

तुम्हारी यही तड़प तुम्हे
एक दिन मिलाएगी
जुबान खामोश रहेगी
और आँखें
अश्कों से भर जायेगी,

सारे गिले शिकवे
अश्कों में बह जायेंगे
और हाथ गले मिलने को
उठ जायेंगे,

(छोटी से जिन्दगी में हम लोगों को लड़ाई का समय कहाँ से मिल जाता है
जबकि हम लोगों के पास इस रोजी रोटी की भागदौड़ में अपने
माँ बाप बीवी और बच्चों से प्यार से बात करने और उन्हें समझने का
समय नहीं होता, शायद हममे ही कोई कमी है)

 *******राघव विवेक पंडित

अहंकार

बहशी बना तो
खुद को खो दिया,
दहशत फैलाई तो
तो अकेला रह गया,
लालच में डूबा तो
आत्मसम्मान खो दिया,

आकांक्षाएं
ज्यादा प्रबल हुई तो
अच्छे बुरे की
समझ जाती रही,
खुद से ज्यादा
प्रेम किया तो
स्वार्थी हो गया,

अहंकार किया तो
पूरी जिन्दगी वर्चस्व
के लिए लड़ता रहा
न सकूँ मिला,
न प्यार मिला,
जो दौलत कमाई
उसका सुख भोगने का
समय न था,
अहंकारी बोल ने
अपने भी
पराये कर दिए,

भूख शांत की उसी रोटी से
जो तेरे दुश्मनों ने खाई
तेरे अपनों ने खाई
उस भिखारी ने भी
जिसे देखकर
तू मुह बिचकाता था,

क्या मिला सिर्फ
अपने और परायों की
घ्रणा,
नफरत,

ऐसी जिन्दगी जीने से
बेहतर है मर जाना,
माँ बाप की
इज्ज़त रह जाएगी,
बच्चे समाज में
सम्मान के साथ रहेंगे,
इंसानों की भीड़ में
दरिन्दे न होंगे,

*******राघव विवेक पंडित


Friday 16 March 2012

कर्म क्षेत्र


राम की धरती पे
रावण का पहरा  
कुरुक्षेत्र में
शाम और 
लंका में सवेरा 

युद्ध क्षेत्र सा पूरा
शहर नज़र आता है
कोई रोटी
कोई पानी
कोई सत्ता के लिए
रहा है  लड़,  
पाप का पेड़
दिनोंदिन रहा है  बढ़, 

एक इंसान
धरती पुत्र किसान
दूर कहीं बैठा  
चिंतित
लेकिन शांत
चेहरे पे एक पल में सेकड़ों भाव
न किसी से लड़ाई न दुश्मनी
सिर्फ इंतज़ार
बारिश का
चिंता है तो बस
कहीं सुखा न पड़ जाये,
मैं और 
मेरा शहर वाला भाई 
भूखा न मर जाये,

एक मानवीय 
विचारों में लीन,
एक मानवीय 
विचारों से विहीन,


           *******राघव विवेक पंडित 

Sunday 4 March 2012

राहे जिन्दगी


राहे जिन्दगी में बहुत कांटे है 
बहुत तकलीफ में गुजरती अपनी रातें है 

दिन के शोर में दब जाती अपनी आहें है,
हमरे दर्द और सुकून की मिलती नहीं राहें है 

जब भी तड़प के जोर से चिल्लाता हूँ 
भीड़ में भी खुद को अकेला ही पाता हूँ, 

पूरा शहर मानो पत्थर का हो गया है,
इन्सां का इन्सां के लिए दर्द कहीं खो गया है,

मैं अपने बोलने का हक खो चूका हूँ,
बेजमीरों की भीड़ में कहीं खो गया हूँ,

मुझे दिन के उजाले से डर लगता है 
सारा शहर जंग के मैदान सा लगता है, 

रात का सन्नाटा बहुत सुकून लाता है,  
न उसमे मैं, न कोई साया नज़र आता है,

इन्सां के लिए 
हर मौसम की अब एक ही तासीर है,
जिन्दा रहना एक मजबूरी 
और मार दिया जमीर है 


                     *******राघव विवेक पंडित



Friday 2 March 2012

तुम


तुम हो 
कभी न सूखने वाली 
प्रेम की नदी,
जिसमे कितना भी विष डाले 
उसका जल सदेव
मीठा ही रहता है,

तुम हो व्याकरण से परे 
शब्दों की
मधुर स्वर माला  
जो वर्षों वर्ष सुनने के बाद 
मन आज भी उतना ही
आतुर होता है जितना 
प्रथम मिलन की संध्या पर,

तुम मेरे करीब होती हो 
तो जन्म लेते है
सेकड़ों सपने,
जो शायद 
तुम न मिलती 
तो कभी साकार न होते,
सासें लेने लगती है  
वो आकांक्षाएं 
जो मर चुकी थी,




              *******राघव विवेक पंडित