Friday 24 August 2012

कैसे मुक्कमल हो
तेरे हुश्न की दास्तां,
मैंने जितना लिखा
ये उतना ही निखरा,





जो झुक गया है सर
तेरे क़दमों में
ये न समझ में कायर हूँ
मुझ पर बोझ है कुछ अपनों का
जिनकी मुहब्बत का में
कायल हूँ,





दिल की सरगम
तुने अगर सुन ली होती,
तेरे शहर में
यूँ चौराहों पे
न खुशियाँ जल रही होती,




तुम जो रूठे
रूठ गया मुक्कदर मेरा,
क्या गुनाह किया
जो दो पल को चाहा साथ तेरा,




हर अँधेरी
रात को होता है
इंतज़ार,
सूरज की लालिमा के साथ
उजाला बिखेरती
सुबह का,





मैंने बहुत कोशिश की
तुझ से नज़र चुराने की,

लेकिन हर ओर निगाहों को
तू ही नज़र आई दीवाने की,




जिनसे उजाला था अँधेरे दिल में
वही मेहमान हो गए सियाह अंधेरों के,




मैखानों में तलाशता हूँ
मैं जिस नशे को
वो तुम पलकों में छिपाए बैठी हो,





कुछ तो है तुझमे
जो ये नज़र ठहर जाती है,
फलक से जमीं तक
बस तू ही नज़र आती है,
दिल बेचैन है बस
एक बार तुझे छूने को,
जिन्दगी से बेजार
मैं चाहूँ एक सहारा बस जीने को,
कर एतबार मुझ पे
मैं न कहीं जाऊँगा,
गर मौत भी आई
तो तेरे पहलु में सिमट जाऊँगा,




बड़ा जिद्दी है
तेरी मुहब्बत का नशा,
ज्यों ज्यों बढे
तेरे सितम ....... त्यों त्यों नशा बढ़ता गया,




हसरतें अधूरी ही रह जायेगी
यादें जन्म भी न ले पाएंगी
समुद्र सा
जीवन कैसे गुजरेगा
जब पल
दो पल
साथ रह .....कोई यूँ ही बिछ्डेगा,





जो लोग सिर्फ अपने लिए जीते है ..........वो रेगिस्तान में उगे उस कीकर के पेड़ की तरह है
जो कब उगा,
कब बड़ा हुआ
कब मिटटी में मिल गया
किसी को नहीं पता,
उसका जीवन निरर्थक है,




फिर दस्तक दी है मुहब्बत ने
दिल के दरवाजे पे,
लगता है फिर कोई देने आया है
यादों का समंदर
और
जुदाई का गम,




वो और होंगे
जिन्हें आरज़ू होगी
तेरे पहलु की,
हम दीवाने तो
काँटों से दिल लगाते है,




मत पूछ मेरे दर्द का आलम
मैं आह भी करूँ, तो तेरा नाम आता है,




कैसी बेखुदी है ये कैसा जूनून है
जिनकी मुहब्बत है कहर
उन्हें देखकर ही सुकून है,




जिन्दगीं के मायने ऐसे बदले ...........
अब मैं जिन्दगी किताबों में ढूँढता हूँ




या खुदा अगर तुने
मेरी हाथ की लकीरों में
मुहब्बत लिख दिया होता..........
न मैं तुझसे खफा होता ......न देख लकीरें हाथों की ....मैं रो दिया होता,














हर सुबह क्यों इंतज़ार है तेरा
तेरे दीदार पर नहीं हक़ मेरा,

तू रानी है गुलिस्तान की
मेरा वीरानो में है डेरा,

मैंने तुझे देखने की गुस्ताखी की
क्या करूँ इस दिल पे नहीं बस मेरा,

तू समंदर है मुहब्बत का
क्या एक कतरे पर भी नहीं हक मेरा,

*******राघव विवेक पंडित



दिलों में मुहब्बत
अब हो गई पत्थर,
दिल से दिल तक
पहुचने का हुआ
अब मुश्किल सफ़र,

मार दिया है मुहब्बत के
जज्बातों को,
दिल में पैदा होने वाले
मुहब्बत के अह्सांसों को,

दिल सिर्फ अब
एक मांस का टुकड़ा
या
सांस लेने वाली
मशीन मात्र है,

*******राघव विवेक पंडित


समय के साथ
क्या क्या बदल जाता है
कल तक जो
चोर रातों को
निकलता था
वो अब दिन में निकल आता है,

चोरी के लिए
अब उसे इंतज़ार नहीं
रात होने का,
वो अब दिन दहाड़े
जनता का माल उड़ाता है,

चोर ही दरोगा है अब
हर ईमान चौकी का,
देश के चोर
अब शांतिकाल में जी रहे है,
चोरों को दरोगा
बनाने वाले
अब खून का घूंट पी रहे है,


*******राघव विवेक पंडित


आज फिर दस्तक दी है
मेरे दिल के
दरवाजे पर
एक खुबसूरत
मासूम सी ख़ुशी ने,


न जाने क्यों
मैं डर रहा हूँ उसे छूने से,
कहीं मेरे
छूने मात्र से
गायब न हो जाए,
कहीं बदल न दे 
अपना इरादा
मेरे घर आने का,


मैं परेशान हूँ
क्या करूँ....क्या न करूँ 
कैसे रोकूँ 
काश ख़ुशी के 
पाँव होते
मैं पाँव में गिरकर
मिन्नत कर लेता.....
मांग लेता माफ़ी 
अपने उन गुनाहों के लिए भी 
जो मैंने नहीं किये,


कैसे कहूँ
मुझे तो आदत हो गई है
दर्दों गम में जीने की
मुझे अपने लिए नहीं चाहिए
तेरा आगमन,



मैं अपने उन 
मासूम बच्चों के लिए
चाहता हूँ
जो ठीक से 
बोल भी नहीं पाते
जो नहीं जानते गम का
ग भी,
जो अनजान है
इस दुनिया की
जहरीले हवाओं से,


ऐ ख़ुशी आ जा
रहम कर
उन मासूम बच्चों पर,
उन बुजर्गों पर
जिन्होंने नहीं ली कभी
सकून की एक सांस भी,


ऐ ख़ुशी
मैं जानता हूँ  
नहीं है हक
तुझ पर गरीब और लाचारों का
लेकिन मात्र
एक कतरा दे देने से
न कम होगी खुशियाँ
साहूकारों की,


ऐ ख़ुशी वर्षो से बैठे है
मेरे जैसे और लोग


थककर गए है वो
टूट चुके है .....
हिम्मत जवाब दे चुकी है उनकी
अब वो भूल चुके है
तेरा नाम भी
अब मांग रहे वो सिर्फ मौत,


ऐ खुसी रहमकर .....रहमकर......रहमकर
आजा ...आजा....आजा 




*******राघव विवेक पंडित

नाकाम है चीखें
उन्हें जगाने में,
सेकड़ों मासूमों के खून के धब्बे
कम पड़ रहे है
उन्हें कुछ भी समझाने में,

उन्हें जुल्म की हर तस्वीर
हर चीख
फरेब नज़र आती है,

जब तक
दूर रहेगी आतंक की आग
उनके दामन से,


वो यूँ ही
अनजान बने रहेंगे
मजलूमों की चीखों
और जल्लादों से,


उनके लिए
बहुत बड़ा है
चांदी के सिक्के का आकार
देश के आकार से,


वो यूँ ही
अनजान बने रहें
तो वो वक़्त भी आ जाएगा
मजलूमों की दाहसंस्कार की
आग की लपटों से
उनके शीशे के घरों का
शीशा भी पिघल जाएगा,
तब उनके
कान फट जायेंगे
सुनकर मजलूमों के चीखों को,


सुन लो
संभल जाओ
ऐसा न हो टूट जाए
मजलूमों के सब्र का बाँध,



*******राघव विवेक पंडित


कहाँ मिलते है
ख़ुशी के जज्बात,


कहाँ मिलती है
हंसी की खैरात,


कहाँ खुशियाँ की
फसल बोई जाती है,


कहाँ गम मिटाने का
मरहम मिलता है,


कहाँ आंसुओं को
आँखों से जुदा किया जाता है,


कहाँ एक इन्सां
दुसरे इन्सां के
गम को देख तड़प जाता है,


कहाँ एक इन्सां
दुसरे इन्सां के लिए
मन में घ्रणा नहीं रखता,


कहाँ है वो दुनिया
जहाँ नहीं जानते इन्सां
रोना
लड़ना
दुश्मनी,


कहाँ है वो दुनिया
जहाँ सिर्फ
एक मजहब होता है इंसानियत,



*******राघव विवेक पंडित


नाराज हो गया

आज चाँद,

मैंने तो बड़ी मुहब्बत से

देखने का किया था

गुनाह,

चाँद की ख़ूबसूरती देख

मैंने तो रोज़ देखने की

कसम भी ली थी,

कुछ कसीदें भी पढ़े थे उसकी

ख़ूबसूरती पर,

एक बहुत

खूबसूरत सिलसिला

चल निकला था

हर रात तारों के साथ

नए रंग में

इन्द्रधनुष सा मनमोहक

खो जाता था

मैं देखते देखते.....

चाँद के रोज़ नए रूप को,



हाँ मैंने कभी उसे पाने की

इच्छा प्रबल नहीं होने दी,

कहाँ चाँद

आसमान का राजा,

कहाँ मैं

जमीं का

एक कतरा

अगर आसमान

से देखो

तो नज़र भी न आऊं,



बहुत पूछने पर

बताया चाँद ने,

किसी ने बुरी

नज़र से

उसे देखा आज,

कुछ खूबसूरती के

दीवाने

दिल बेकाबू न कर सके,

और बह गए

भावनाओं में,

और चाँद को देखकर

पढ़ दिए कुछ

ऐसे कसीदें

जो सच थे लेकिन

नागवार गुजरे चाँद को,



लेकिन दिल कहाँ

मानता है हमारी,

हम चाह कर भी

दिल को न समझा सके,

आज भी

ये चाँद का दीदार करने से

कहाँ बाज़ आता है

लेकिन अब उसे

ये छुप छुपकर निहारता है,





*******राघव विवेक पंडित