Friday 24 August 2012

कैसे मुक्कमल हो
तेरे हुश्न की दास्तां,
मैंने जितना लिखा
ये उतना ही निखरा,





जो झुक गया है सर
तेरे क़दमों में
ये न समझ में कायर हूँ
मुझ पर बोझ है कुछ अपनों का
जिनकी मुहब्बत का में
कायल हूँ,





दिल की सरगम
तुने अगर सुन ली होती,
तेरे शहर में
यूँ चौराहों पे
न खुशियाँ जल रही होती,




तुम जो रूठे
रूठ गया मुक्कदर मेरा,
क्या गुनाह किया
जो दो पल को चाहा साथ तेरा,




हर अँधेरी
रात को होता है
इंतज़ार,
सूरज की लालिमा के साथ
उजाला बिखेरती
सुबह का,





मैंने बहुत कोशिश की
तुझ से नज़र चुराने की,

लेकिन हर ओर निगाहों को
तू ही नज़र आई दीवाने की,




जिनसे उजाला था अँधेरे दिल में
वही मेहमान हो गए सियाह अंधेरों के,




मैखानों में तलाशता हूँ
मैं जिस नशे को
वो तुम पलकों में छिपाए बैठी हो,





कुछ तो है तुझमे
जो ये नज़र ठहर जाती है,
फलक से जमीं तक
बस तू ही नज़र आती है,
दिल बेचैन है बस
एक बार तुझे छूने को,
जिन्दगी से बेजार
मैं चाहूँ एक सहारा बस जीने को,
कर एतबार मुझ पे
मैं न कहीं जाऊँगा,
गर मौत भी आई
तो तेरे पहलु में सिमट जाऊँगा,




बड़ा जिद्दी है
तेरी मुहब्बत का नशा,
ज्यों ज्यों बढे
तेरे सितम ....... त्यों त्यों नशा बढ़ता गया,




हसरतें अधूरी ही रह जायेगी
यादें जन्म भी न ले पाएंगी
समुद्र सा
जीवन कैसे गुजरेगा
जब पल
दो पल
साथ रह .....कोई यूँ ही बिछ्डेगा,





जो लोग सिर्फ अपने लिए जीते है ..........वो रेगिस्तान में उगे उस कीकर के पेड़ की तरह है
जो कब उगा,
कब बड़ा हुआ
कब मिटटी में मिल गया
किसी को नहीं पता,
उसका जीवन निरर्थक है,




फिर दस्तक दी है मुहब्बत ने
दिल के दरवाजे पे,
लगता है फिर कोई देने आया है
यादों का समंदर
और
जुदाई का गम,




वो और होंगे
जिन्हें आरज़ू होगी
तेरे पहलु की,
हम दीवाने तो
काँटों से दिल लगाते है,




मत पूछ मेरे दर्द का आलम
मैं आह भी करूँ, तो तेरा नाम आता है,




कैसी बेखुदी है ये कैसा जूनून है
जिनकी मुहब्बत है कहर
उन्हें देखकर ही सुकून है,




जिन्दगीं के मायने ऐसे बदले ...........
अब मैं जिन्दगी किताबों में ढूँढता हूँ




या खुदा अगर तुने
मेरी हाथ की लकीरों में
मुहब्बत लिख दिया होता..........
न मैं तुझसे खफा होता ......न देख लकीरें हाथों की ....मैं रो दिया होता,














हर सुबह क्यों इंतज़ार है तेरा
तेरे दीदार पर नहीं हक़ मेरा,

तू रानी है गुलिस्तान की
मेरा वीरानो में है डेरा,

मैंने तुझे देखने की गुस्ताखी की
क्या करूँ इस दिल पे नहीं बस मेरा,

तू समंदर है मुहब्बत का
क्या एक कतरे पर भी नहीं हक मेरा,

*******राघव विवेक पंडित



दिलों में मुहब्बत
अब हो गई पत्थर,
दिल से दिल तक
पहुचने का हुआ
अब मुश्किल सफ़र,

मार दिया है मुहब्बत के
जज्बातों को,
दिल में पैदा होने वाले
मुहब्बत के अह्सांसों को,

दिल सिर्फ अब
एक मांस का टुकड़ा
या
सांस लेने वाली
मशीन मात्र है,

*******राघव विवेक पंडित


समय के साथ
क्या क्या बदल जाता है
कल तक जो
चोर रातों को
निकलता था
वो अब दिन में निकल आता है,

चोरी के लिए
अब उसे इंतज़ार नहीं
रात होने का,
वो अब दिन दहाड़े
जनता का माल उड़ाता है,

चोर ही दरोगा है अब
हर ईमान चौकी का,
देश के चोर
अब शांतिकाल में जी रहे है,
चोरों को दरोगा
बनाने वाले
अब खून का घूंट पी रहे है,


*******राघव विवेक पंडित


आज फिर दस्तक दी है
मेरे दिल के
दरवाजे पर
एक खुबसूरत
मासूम सी ख़ुशी ने,


न जाने क्यों
मैं डर रहा हूँ उसे छूने से,
कहीं मेरे
छूने मात्र से
गायब न हो जाए,
कहीं बदल न दे 
अपना इरादा
मेरे घर आने का,


मैं परेशान हूँ
क्या करूँ....क्या न करूँ 
कैसे रोकूँ 
काश ख़ुशी के 
पाँव होते
मैं पाँव में गिरकर
मिन्नत कर लेता.....
मांग लेता माफ़ी 
अपने उन गुनाहों के लिए भी 
जो मैंने नहीं किये,


कैसे कहूँ
मुझे तो आदत हो गई है
दर्दों गम में जीने की
मुझे अपने लिए नहीं चाहिए
तेरा आगमन,



मैं अपने उन 
मासूम बच्चों के लिए
चाहता हूँ
जो ठीक से 
बोल भी नहीं पाते
जो नहीं जानते गम का
ग भी,
जो अनजान है
इस दुनिया की
जहरीले हवाओं से,


ऐ ख़ुशी आ जा
रहम कर
उन मासूम बच्चों पर,
उन बुजर्गों पर
जिन्होंने नहीं ली कभी
सकून की एक सांस भी,


ऐ ख़ुशी
मैं जानता हूँ  
नहीं है हक
तुझ पर गरीब और लाचारों का
लेकिन मात्र
एक कतरा दे देने से
न कम होगी खुशियाँ
साहूकारों की,


ऐ ख़ुशी वर्षो से बैठे है
मेरे जैसे और लोग


थककर गए है वो
टूट चुके है .....
हिम्मत जवाब दे चुकी है उनकी
अब वो भूल चुके है
तेरा नाम भी
अब मांग रहे वो सिर्फ मौत,


ऐ खुसी रहमकर .....रहमकर......रहमकर
आजा ...आजा....आजा 




*******राघव विवेक पंडित

नाकाम है चीखें
उन्हें जगाने में,
सेकड़ों मासूमों के खून के धब्बे
कम पड़ रहे है
उन्हें कुछ भी समझाने में,

उन्हें जुल्म की हर तस्वीर
हर चीख
फरेब नज़र आती है,

जब तक
दूर रहेगी आतंक की आग
उनके दामन से,


वो यूँ ही
अनजान बने रहेंगे
मजलूमों की चीखों
और जल्लादों से,


उनके लिए
बहुत बड़ा है
चांदी के सिक्के का आकार
देश के आकार से,


वो यूँ ही
अनजान बने रहें
तो वो वक़्त भी आ जाएगा
मजलूमों की दाहसंस्कार की
आग की लपटों से
उनके शीशे के घरों का
शीशा भी पिघल जाएगा,
तब उनके
कान फट जायेंगे
सुनकर मजलूमों के चीखों को,


सुन लो
संभल जाओ
ऐसा न हो टूट जाए
मजलूमों के सब्र का बाँध,



*******राघव विवेक पंडित


कहाँ मिलते है
ख़ुशी के जज्बात,


कहाँ मिलती है
हंसी की खैरात,


कहाँ खुशियाँ की
फसल बोई जाती है,


कहाँ गम मिटाने का
मरहम मिलता है,


कहाँ आंसुओं को
आँखों से जुदा किया जाता है,


कहाँ एक इन्सां
दुसरे इन्सां के
गम को देख तड़प जाता है,


कहाँ एक इन्सां
दुसरे इन्सां के लिए
मन में घ्रणा नहीं रखता,


कहाँ है वो दुनिया
जहाँ नहीं जानते इन्सां
रोना
लड़ना
दुश्मनी,


कहाँ है वो दुनिया
जहाँ सिर्फ
एक मजहब होता है इंसानियत,



*******राघव विवेक पंडित


नाराज हो गया

आज चाँद,

मैंने तो बड़ी मुहब्बत से

देखने का किया था

गुनाह,

चाँद की ख़ूबसूरती देख

मैंने तो रोज़ देखने की

कसम भी ली थी,

कुछ कसीदें भी पढ़े थे उसकी

ख़ूबसूरती पर,

एक बहुत

खूबसूरत सिलसिला

चल निकला था

हर रात तारों के साथ

नए रंग में

इन्द्रधनुष सा मनमोहक

खो जाता था

मैं देखते देखते.....

चाँद के रोज़ नए रूप को,



हाँ मैंने कभी उसे पाने की

इच्छा प्रबल नहीं होने दी,

कहाँ चाँद

आसमान का राजा,

कहाँ मैं

जमीं का

एक कतरा

अगर आसमान

से देखो

तो नज़र भी न आऊं,



बहुत पूछने पर

बताया चाँद ने,

किसी ने बुरी

नज़र से

उसे देखा आज,

कुछ खूबसूरती के

दीवाने

दिल बेकाबू न कर सके,

और बह गए

भावनाओं में,

और चाँद को देखकर

पढ़ दिए कुछ

ऐसे कसीदें

जो सच थे लेकिन

नागवार गुजरे चाँद को,



लेकिन दिल कहाँ

मानता है हमारी,

हम चाह कर भी

दिल को न समझा सके,

आज भी

ये चाँद का दीदार करने से

कहाँ बाज़ आता है

लेकिन अब उसे

ये छुप छुपकर निहारता है,





*******राघव विवेक पंडित

Sunday 22 July 2012

मजबूर हम


घुटने लगता है दम
साँसे तेज हो जाती है
होठ खुलते है
चिल्लाने को
मगर जुबान
साथ नहीं देती,
मन रोता है
आँखें भर आती है
लेकिन आवाज़ नहीं आती,
ह्रदय कोसता है
कभी विधाता को
कभी जीवन को,

जब मजबूर
कर दिया जाता है ऐसे
कार्यों को करने के लिए,
जिन्हें करने के बाद
हमारी अंतरात्मा
धिक्कारती है,
लगाईं जाती है
जब हमारी
ईमानदारी की बोली
झूठे और मक्कार
लोगों के द्वारा,
जब बन जाते है हमारे लिए
विरोध और मौत
पार्यवाची शब्द,



*******राघव विवेक पंडित

Tuesday 17 July 2012



सिमट गया 
सब कुछ कागज के 
एक टुकड़े पर, 
उस टुकड़े को कोई
डालर तो कोई रुपया
कहता है,
चारों पहर इंसान 
उसी के फेर में रहता है,

इंसान की सभी
भावनाओं, रिश्तों और
क्रियाकलापों का 
केंद्र बिंदु बन गया है 
कागज़ का एक टुकड़ा,

गूंगे और बहरे
हो जाते है उसे देख
बड़े बड़े भाषण देने वाले,

बदल जाते है
सच और झूठ के मायने
कागज़ के
एक टुकड़े के दखल से,
सर्वोपरि हो गया 
वो इंसान के
सभी संस्कारों से,

जिस कागज़ के टुकड़े का 
अविष्कार
इंसान ने किया,
आज वही
कागज़ का टुकड़ा 
इंसान को चला रहा है,


        *******राघव विवेक पंडित 











Saturday 14 July 2012


सिर्फ हमारा

बड़ी ख्वाइश होती है
कभी झूमे
ये दिल भी हमारा, 
कोई स्नेह से चूमे जो 
माथा हमारा,

कोई हमें भी भर ले
प्यार से बाहों में,
प्यार हो हमारे लिए भी  
किसी की निगाहों में,

कोई पूछे हम से भी 
हमारे दिल का हाल,
काश कोई रखता
हमारा भी ख्याल, 

कोई लिखता हमें भी 
प्रेम भरी पाती,
कोई होता हमारे भी
दुःख सुख का साथी,

कोई होता जिससे हम अपना 
दुःख सुख बतियाते ,
कोई होता जिसके दुःख में 
हम आंसू बहाते,

कोई होता जिसके बिछुड़ने पर 
दिल फूट फूट रोता,
कोई होता जो सिर्फ हमारा
सिर्फ हमारा ..... सिर्फ हमारा होता,


                 *******राघव विवेक पंडित 




Saturday 7 July 2012


मैं स्वयं से
यूँ ही कब तक लडूं,
कशमकश सी
रहती है मन में
कुछ कहने न कहने की,

कब तक
न दूँ अंतर्मन में
उठने वाले सवालों के जवाब,
कब तक सच से मुख मोड़
झूठे और बनावटी
संसार से मन बहलाऊं,

कैसे रोकूँ
अंतर्मन में उठने वाले
उन सवालों को
जिनके जवाब देते हुए
मैं उग्र हो जाता हूँ


जो अहसास दिलाते है मुझे
मेरी मृत संवेदनाओं का,
झकझोर देते है मेरी
अंतरात्मा को,


*******राघव विवेक पंडित




सावन की
रिम झिम से
घर में बैठा कोई
राहत की सांस ले
परमात्मा का
धन्यवाद कर रहा है,


और एक तरफ
एक औरत
अपने बच्चों के साथ
जिसका बसेरा
खुला आसमां
दुकानों का छज्जा
भीग रही है
झमाझम पानी में
भीग के ठिठुरती
ठंड से कांपते
अपने बच्चों को
एक कई जगह से फटी
चादर से ढकती,
ठंड से बचाने की
नाकाम कोशिश करती हुई
कभी आसमां की ओर
देखती है तो
कभी बच्चों की ओर,
बहुत मुश्किल है उसकी
तड़प को समझना,


*******राघव विवेक पंडित




उम्र गुजार दी 
सामान इकठ्ठा करने में 
जीने का,
अब मिला है वक़्त
तो खुद को
तलाशता हूँ 
मैं सामान के बीच,

मैं नासमझ 
ये न समझ पाया 
बीती जिन्दगी और साँसे 
किसी बाजार में 
नहीं मिलती,

आज वो वक़्त है 
सामान है दो जन्मों का,
और मैं तड़पता हूँ 
दो दिन जीने को, 
 

               *******राघव विवेक पंडित 
 

Tuesday 3 July 2012

अब तो 


दुनिया में जीने को चाहिए

दिल पत्थर का,

वो लायें कहाँ से यारों, 

या रहे तन्हा

या पथरों से दिल लगाए यारों,


हम न होंगे पत्थर 

न पत्थर दिल बनेगे यारों,

यूँ ही मोम सा दिल लिए 

हम पथरों से लड़ेंगे यारों,



होंगे जो पत्थर दिल 

वही चौराहों पे बिकेंगे यारों,

सदा रहे दिलवाले

सबके दिल में,

मर के भी 

दिलों में ही रहेंगे यारों,


लाख जुल्म करे जमाना 
हम न बदलेंगे यारों, 
हम है इन्सां 
इन्सां ही रहेंगे यारों,
 


          *******राघव विवेक पंडित




Monday 2 July 2012


माँ ने
आँखों में आंसू भर
बेटे को 
शहर के लिए
विदा तो किया,

लेकिन आज भी
माँ की आँखों मे
विदाई के समय की
नमी बाकी है

आज भी
घर के द्वार के
उसी कोने पर
शाम को
उसके आने का
करती है इंतज़ार,
जहां से उसने
अपने बेटे को
जी भर देख
विदा करने का
साहस किया था,


     *******राघव विवेक पंडित


रुठुं तो किससे
कोई अपना सा 
लगा ही नहीं 
किसी न 
अपना कहा ही नहीं,

जो मिला स्वार्थ से
स्वार्थ पूर्ण होते ही
वो हो गया विलुप्त,
जैसे संसार से
डायनासौर,

लेकिन ये लौटेगा फिर
किसी स्वार्थ से
मिन्नते करता
माफ़ी मांगता
और स्वार्थ पूर्ति
के पश्चात
फिर गायब,

और बढ़ा गया
मेरे जीवन में एक और
स्वार्थी मित्र की संख्या,

******राघव विवेक पं
डित
बचपन से ही 
स्वयं के सिवाय 
सबके लिए 
सोचता था वो,

माँ बाप घर द्वार
कब छूटे
उसे नहीं पता
उसे पता था सिर्फ
गाँव के लोगों की समस्या और
उनके दुःख दर्द,
गाँव के सभी लोगों के
दिल में
रहता था वो,
गाँव के बहुत से लोग
उसका नाम तक नहीं जानते थे,
गाँव के बड़े बुगुर्ग उसे
बेटा
और गाँव के बच्चे
भैया
कह बुलाते थे,

एक बार कहीं
दूर गाँव में
तूफान से
सारा गाँव बिखर गया
बर्बाद हो गए लोग
चारों ओर हा हाकर,

उसने सुना
बिना कुछ सोचे विचारे
वो आतुर हो उठा
वहां जाने को,
गाँव वालों ने
उसे बहुत मना किया
पर वो अपने निर्णय पर
अडिग रहा,
लोगों ने उसे भारी मन से
विदा किया,

किसी ने बताया
उसने वहां भी
पीड़ितों की बहुत
सेवा की,
वहां भी न जनता था
उसका कोई नाम,

वहां भी लोगों में उनका
बेटा और भैया
बन के रहा वो,
बहुत समय तक
उसकी फिर
कोई खबर न आई,

फिर एक दिन
खबर आई कि
बाढ़ के पानी में
डूबते एक बच्चे को बचाते समय
वो स्वयं भी डूब गया,

लौटा न वो
फिर कभी
वो मिटाता चला
अपने क़दमों के निशाँ
नहीं चाहता था वो
अपनी कुबानी के बदले
कुछ भी,.

लेकिन वो
छोड़ गया लोगों के
ह्रदय में एक अमिट छाप,

*******राघव विवेक पंडित
क्यों कोई आता है याद,
कुछ मरहमी 
बातें करने के बाद,

क्यों उसकी की कमी सी 
महसूस होती है,
उसे देखने की बार बार
ख्वाइश होती है,

वो अनजाना
अनदेखा
अपना सा लगने लगता है,
उसका अपनापन
मजबूर कर देता है
आँखों में आंसू होने
के बाद भी
मुश्कुराने को,

जब भी कोई दिल को
ठेस पहुंचता है
बहुत याद आती है उसकी,
दिल चाहकर भी
उसे भुला नहीं पाता,

*******राघव विवेक पंडित

क्यों खुमारी सी
तुझ पे 
मजहब की
छाई रहती है, 
क्यों तुझे
इंसानियत की बात 
न सुनाई देती है, 
क्यों उलझी
रहती है तू 
हजारों साल पुरानी किताबों में,
उनमे कहाँ 
आज की
तस्वीर दिखाई देती है,

बचपन से ही
तुने निर्दोष
जीव और इंसानों का
खून बहते देखा है,
तू कितना भी धोये 
मैंने आज भी
तेरी बातों और हाथों में 
लहू देखा है,

कितना भी मुहब्बत का 
नाम तेरी
जुबान पे सही,
बगल में तेरे सदा
लहू सना
खंजर रहता है,

तू कितना भी
खुद को
समाज में फैली 
बुराइयों का
आलोचक कह,
तेरी बातों में
कहीं न कहीं 
मजहब प्रेम रहता है,

          ********राघव विवेक पंडित 

क्यों भाग रहा है  
पता नहीं,
अनगिनित चीख और चिलाहट
सुनने के बाद भी
नहीं जाग रहा है, 
अँधा हो गया है,
स्वार्थ में 
बहरा हो गया, 
लालच में 
खबर नहीं
खुद की भी 
ठोकर लगने पर गिरता है
फिर संभलता है, 

फिर लगा भागने 
पर किस ओर
मालूम नहीं,

ह्रदय है खाली
सिर्फ एक
मांस का टुकड़ा,
कब संवेदनाओं ने
दम तोडा 
पता नहीं,
कब इंसान से मशीन बना
पता नहीं  
बन गया है,
चलता फिरता मांस का टुकड़ा
बस चलता जा रहा है ... चलता जा रहा है 
कहाँ 
पता नहीं ...........
आज का इंसान, 

          *******राघव विवेक पंडित

Friday 18 May 2012

हम अनजान नहीं दर्द से
पर सदा साथ नहीं रखते,

हंस लेते दर्द छुपा के
दर्द की बात नहीं करते,

हमसे दुश्मन भी परेशान है
हम दर्द का इज़हार नहीं करते,

हम रो लेते है अकेले में
पर दुश्मन को भी नाराज़ नहीं करते,

*******राघव विवेक पंडित


पढाई पूरी कर
गाँव में खेत की
मेढ़ पर बैठ
में सोच रहा था उन सपनो के बारे में
जो मैंने बचपन से जवानी
तक देखे
अब समय था उन सपनो को
सार्थक करने का,

लेकिन मेरा दायित्व
मुझे पहले
माँ बाप की उन उम्मीदों
पूरा करने के लिए
मजबूर कर रहा था
जो वर्षों से में उनकी
आँखों में देखता आ रहा था

माँ बाप ने खून पसीना एक कर
जो कमाया
मेरी पढाई पर खर्च किया
बहन की शादी के लिए जो
पैसे जमा किये
वो सब भी मेरी पढाई में
खर्च हो गए,
पाई पाई जमा की थी
कुआँ खुदवाने को
वो सब पूंजी भी पढाई
की भेंट चढ़ गई,
उसके अलावा कुछ लोगों से भी
क़र्ज़ लिया था
अपने सपनो को भूल
मेरे सपनो को पूरा करने में
पाई पाई लगा दी
इस उम्मीद पर
एक दिन ये हमारे सभी
सपने पुरे करेगा
अब समय आया था
उन्हें पूरा करने का,

बैठे बैठे
सोचते सोचते
शाम ढल गई
मैं निर्णय न ले पाया
कि मैं अपने सपने पूर्ण करूँ या
माँ बाउजी कि उम्मीद पर
खरा उतरूं,

मैं रात को भी
एक पल न सो पाया
सुबह जाना था शहर
सुना था वहां होते है सभी के
सपने पूर्ण,

सुबह जब जाने लगा
तो माँ बाउजी और
मेरी छोटी बहन द्वार पर
मुझे विदा करने को
आँखों में आंसू लिए खड़े थे,
माँ बाउजी ने मुझे विदा करते हुए
सिर्फ एक ही बात कही
बेटे अपना ध्यान रखना,

बहुत सी चिंताओं का
बोझ काँधे पे लिए
माँ बाउजी मुझे
अपना ध्यान रखने के लिए
कह रहे थे
कोई दुःख चिंता
उन्होंने मुझसे आज भी नहीं बांटी,
धन्य है मेरे माँ बाउजी,

जो निर्णय
मैं पूरी रात
पुरे दिन में न ले सका
वो निर्णय मैंने अपनी
विदाई के समय एक पल
में ले लिया
कि मैं पहले अपने माँ बाउजी के
सभी सपनो को पूर्ण करूँगा,

*******राघव विवेक पंडित



लम्हा लम्हा गुजरा
भुला न सका तुम्हे,

दर्द बढता गया मेरा
बता न सका तुम्हें ,

अश्क पलकों पे ठहरे
पर गिरा न सका उन्हें,

मैं प्यार करता हूँ तुमसे
ये जाता न सका तुम्हें,


           
             
आ फलक पे ले चलूँ
रकीबों के जहाँ से दूर,

मेरे सिवा न देखे कोई
हर बुरी निगाह से दूर,

चाँद तारों में हो आशियाँ
इस संगदिल जहाँ से दूर,

करूँ इतनी मुहब्बत तुझसे
अश्क रहे तेरी पलकों से दूर दूर,

*******राघव vivek pandit


घर के कुछ ह्रदय विहीन
पुरुषों और स्त्रियों ने
मजबूर कर दिया
एक माँ को
उसके पेट में पल रहे
उसके पूर्ण विकसित
अबोध शिशु की
हत्या को
उसकी साँसे छिनने को
सिर्फ इसलिए
कि उसका लिंग
लड़की था
लड़का नहीं

माँ सिसकती रही
तडपती रही
न आई उस पर किसी को दया,
माँ ने फिर गुहार लगाईं
एक बार मुझे
उसके मृत शरीर को ही दिखा दो
देखते ही माँ के
ह्रदय पे छप गई
उसकी फूल सी कोमल
परियों से सुंदर
राजकुमारी के
मुख की सुंदरतम तस्वीर
हाथ पाँव की छाप,

माँ न भूल पाई ताउम्र
अपनी मासूम बच्ची का मुख
बातों ही बातों में
जिक्र कर देती थी
उसके नयन नक्श का,

जब भी किसी
सुंदर बच्ची को देखती
तो सोचती थी
ऐसी ही होती
अगर उसे न मारा होता,

*******राघव विवेक पंडित


Friday 11 May 2012


 
तुम कौन हो  
रात की रानी 
जो चाँद और तारों से सजी 
डोली में आती है 
सिर्फ रात में, 

या रात की रानी के वृक्ष का
वो पुष्प
जो अपनी महक से
मंत्रमुग्ध कर 
देता है रात की तन्हाई को,

या तुम हो 
जुगनू 
जो अपनी उड़ान के साथ 
पल पल रोशन करता है 
स्याह रात को ,

या तुम हो 
वो चिराग  
जो रात के अंधरे में
पल पल खुद को जला 
भटकों को राह दिखाता है,


              *******राघव विवेक पंडित  



Wednesday 9 May 2012

बिक गई आत्मा
बिक गया परमात्मा
बिक गया ये शहर
बिक गया धर्मात्मा,

बिकता है बस झूठ यहाँ
सच का हो गया खात्मा,
दूसरों हक छीन के
जब रोटी कमाई जाती है
आत्मा की उसी समय
अर्थी उठाई जाती है,

चील कौओं की मजबूरी
खाना मुर्दा जानवर,
बदतर है इंसान
जीवों से
खा रहा जिन्दा आदमी,

कोई रोये
आंसू बहाए
मरे कोई तड़पकर,
बेअसर है हर दर्द
जब मर चुकी आत्मा,

आत्मा के मरते ही
मर गई इंसानी भावना
मांस का चिथड़ा सा
घूमता है इंसान
अब यहाँ वहां,

*******राघव विवेक पंडित




Thursday 3 May 2012

दर्द दिल में न हो
तो कलम कैसे
दर्द लिख पाएगी,

दर्द दिल में न हो
तो कैसे लफ्जों में
दर्द आता है,

जख्म खाए बगैर
कैसे कोई
जख्मी दिल का
दर्द बयां कर पायेगा,

लहू का एक
कतरा बहाए बगैर
कैसे कोई
मुहब्बत की रुसवाई पर
लिख पायेगा,

हम दीवानों ने
जब भी दर्द दिल का बयाँ किया
जमाने ने उसे दिल्लगी बना दिया,

*******राघव विवेक पंडित


हटा मत चेहरे से जुल्फें
तुझे देख नहीं
झुकती पलकें,

चाँद जैसे
बदरी से हो घिरा,
नीले आसमां में
जैसे बादल बिखरा,

तू समेटें क़यामत
चेहरे पे
लाखों जुल्फों के
पहरे में,

चेहरे की तेरे
मादकता
और बढाती है जुल्फें,
जो देखे मदमस्त
हो जाये,
नशा और बढ़ाती है
जुल्फें,

*******राघव विवेक पंडित

सुबह की मीठी मीठी धूप
कडवी हो जाती है
जब सुबह के अखबार में
मासूम लोगों की
हत्या
मासूम बच्चों का
अपहरण
और
स्त्रियों पर अत्याचार की
खबर आती है,

अखबार पढ़ते पढ़ते
मुझे अपना घर
एक भयानक शहर में
नज़र आता है
और सुबह की मिठास
लगती है एक मृग मरीचिका,

आजकल अखबार में
खबर होती है शहर में
होने वाले मातम की,
नेताओं के घोटाले की,
गरीब के भूखे बच्चों के
खाली प्यालों की,
ये सब देख आसमान भी
घबराता है फिर भी
कहीं से छोटी छोटी
खुशियों के साथ
मीठी सुबह लाता है.....

*******राघव विवेक पंडित

सितमगर है वो मुझे छोड़ जायेंगे
एक पल में सभी रिश्ते तोड़ जायेंगे,

मेरे अश्कों का न उन पे असर होगा
यू ही पलकों पे अश्क छोड़ जायेंगे,

देखेंगे न वो हमें मुड़कर कभी
इस बेरुखी से शहर छोड़ जायेंगे,

वो न देखेंगे ख़्वाबों में भी हमें
इस कदर नींद पर कहर बरपायेंगे,

महफ़िल में हमारा जब कोई नाम लेगा,
वो बेरुखी से, महफ़िल ही छोड़ जायेंगे,

*******राघव विवेक पंडित
दिल टुटा
आहट न हुई
आंसू आये आँखों में
सहमे से
पर ठहर गए पलकों पे
सुख गए वही
बह न सके,

जुबां भूल गई
रोना चिल्लाना, हँसना
बची तो सिसकियाँ
जिनकी आवाज़
दब के रह गई
टूटे हुए दिल के
सन्नाटे भरे अंधरे में,

*******राघव विवेक पंडित


आसमां से टूटे तारे को देखना
एक अपसकुन का
अहसास
शायद कुछ बुरा होने को
मेरे साथ
लेकिन शहर में
हर ओर रुदन और बैचैनी है
क्या सभी ने देखा
टूटता तारा,

क्या शहर में होने वाली
हत्या, चोरी , डकैती
का कारण
टूटता तारा देखना,

एक अंध विद्यालय को
आतंकियों ने बम से
उड़ा दिया
उन्होंने तो नहीं देखा था
टूटता तारा,

एक अनब्याही माँ
नवजात शिशु को
सड़क पर छोड़ गई
उस मासूम शिशु ने
कब देखा
टूटता तारा,

मैं कैसे विश्वास करूँ
जो तारा सारी उम्र
रौशनी देता रहा,
उसका टूटना
किसी को कैसे
दुःख दे सकता है,

*******राघव विवेक पंडित

कोई तन्हा कब तक दिल को संभाले
जिन्दगी बीती अंधेरों में, हुए न उजाले,

इस उम्मीद पे लड़ता रहा मुश्किलों से
कभी होगी अपनी सुबह और उजाले,

तलाश की बहुत, न दिलबर मिला कोई
पोंछे जो आंसू, इन अंधेरों से निकाले,

जो मिला सौदा किया हमारे जज्बातों का,
कोई मिले ऐसा, जो हमें दिल से भी लगा ले,

यारब कब होगी सुबह, कब होंगे उजाले,
दुनिया से दर्दों गम के, तू अँधेरे उठा ले ,

*******राघव विवेक पंडित
मत दो आवाज़
मैं थक चूका हूँ
जिन्दगी के हर ख्वाब
से जग चूका हूँ,

हर ख्वाब ख़त्म
हो चूका है
जो देखा था मैंने
रुपहली दुनिया में,
हर चमक पीछे स्याह
अँधेरा है,

*******राघव विवेक पंडित

कब तक
मैं मिलता
बिछुड़ता रहूँ
फैले दामन को
अपने समेटता रहूँ,

बचपन से ही
मुश्किलों से
मैं अकेला
लड़ता रहा,
अकेले ही अपनी
राह पर
चलता रहा,

जिन्दगी से अकेला मैं
कब तक लडूं,
अपने दिल की लगी मैं
किस से कहूँ,
शायद अकेलापन ही
मेरी तकदीर है
मेरे पुर्व्जनम के
दुष्कर्मों की
सजा की जंजीर है,

*******राघव विवेक पंडित


एक भ्रष्ट नेता की जीत
शहर की सड़कों पर
ख़ुशी मनाते
उसी की तरह के
भ्रष्ट और चापलूस लोग,
हरामखोर और आवारागर्द
लोगों की सड़क पर भीड़,
भ्रष्ट नेता के पीछे
जय जयकार करता
फूलमाला पहनाता
अपराधियों का समूह,

भीड़ से कुछ
दुरी पर खड़े कुछ
हाथ मलते
अपने गुस्से को दबाते
पथराई आँखों से देखते
मजबूर और लाचार लोग,
अपने नसीब को कोसते
और सोचते
फिर सहने पड़ेंगे इनके जुल्म
फिर अभिशाप बन जायेगी
बहन बेटियों की सुन्दरता,
फिर खाया जाएगा
हमारी बदहाली मिटाने के
नाम पर पैसा,

शायद हमारी किस्मत में ही
इनके अत्याचारों से घुट घुट के
जीना और मरना है,
जाने कब खत्म होगी इन
अत्याचारी और कुशाशित
नेताओं की भीड़,

जाने कब तक पालते रहेंगे
नपुंशक बन हम
इन पिशाचों को,

*******राघव विवेक पंडित
कब तक यु ही बेकरार दिल संभालूं
कोई हमनशी मिले तो दिल लगा लूं

जो कोई दे दे तडपते दिल को राहत
उसे यूँ तड़पने का सबब बता दूँ,

जो कोई दे मुहब्बत, मुझ दीवाने को
उसी पे दिल की दौलत मैं लुटा दूँ,

जो कोई दे दे अपना हाथ मेरे हाथों में
उसी को मैं अपना हमसफ़र बना लूँ ,

*******राघव विवेक पंडित


फूलों में तुम बहारों में तुम,
फलक पे चमकते सितारों में तुम

सांसो में तुम, धडकनों में तुम,
निगाहों में तुम, नजारों में तुम,

ख्वाब भी तुम, हकीकत भी तुम,
वादों में तुम, इरादों में तुम,

दर्द भी तुम, मरहम भी तुम,
जिन्दगी भी तुम, जन्नत भी तुम,

*******राघव विवेक पंडित



छोटी सी नन्ही परी
छोटे छोटे सपने
हाथों में गुडिया
ख्यालों में अपने
निश्चल, निष्कपट
मासूम सी करती है
मीठी मीठी बातें,

सबकी प्यारी
सबसे न्यारी
इस घर की
वो राजकुमारी,
दादा दादी. नाना नानी
इनके दिल की
वो है महारानी,

सबके मन को भावें वो
सबको प्यार से बांधे वो,
पापा जब
दफ्तर से आते
खाना उन्हें खिलाती वो,

पहले पूछती
गुस्सा तो नहीं करोगे
फिर दिन में की सभी
शरारतें
पापा को बतलाती वो,

मम्मी की मदद की कोशिश में
सारे काम बिगाड़े वो
जब मम्मी डाटन को आये
पापा को शिकायत लगाए वो,

सबकी आँखों सकूँ वो
उसके नन्हे क़दमों से
रोशन रहता
मेरा घर मेरा संसार,

*******राघव विवेक पंडित

मेरा हर लफ्ज दर्द में डूब जाएगा
राहत ऐ गम तेरा जो साथ छुट जाएगा,

मेरा हर अश्क आँखों से गिरने को तडपेगा
दिल तरसेगा रोने को, पर रोया भी न जाएगा,

तुम करोगी अपना आबाद नया गुलिस्तान
और मेरा जर्द गुलिस्तान भी न रह जाएगा,

तुम न करोगी याद कभी भूलकर भी
मेरा दिल तुम्हे चाहकर भी न भूल पायेगा,


*******राघव विवेक पंडित
खामोश जुबां
मदहोश शमां
निगाहों से
मुहब्बत का जाम पिया
मदहोशी कुछ तुम पर छाई
कुछ मैं भी मदहोश हुआ
कुछ डूबी तुम मुझमे
कुछ में भी तुम में डूब गया
कुछ तुम में
सावन झूम गया
कुछ में भी
तड़प के बरस गया,

*******राघव विवेक पंडित

बट गया 

जमीं बट गई
आसमान बट गया
मुहब्बत भरा
ये जहान बट गया,

शहर बट गया गाँव बट गया
घर का एक एक 
समान बट गया,

माँ बट गई बाप बट गया
माँ बाप के सपनो का 
जहान बट गया,

कभी खेले थे जिस आँगन में
नीम तले भाई बहन 
उस आँगन की ईंट ईंट 
नीम का पत्ता पत्ता
और आसमान बट गया,
 
बेटी बट गई बेटा बट गया 
बेटी की चाहत का 
खुमार घट गया,

बट गया शहर 
ये जहान बट गया 
सितारों भरा ये आसमान बट गया
इंसानों में इंसानियत का   
भाव घट गया
इंसान बट गया 
भगवान बट गया, 


           *******राघव विवेक पंडित 

Monday 26 March 2012

बस तुम


मेरे सपनो के सागर में 
एक ही मोती है 
वो हो तुम,

मेरी आँखों में 
तुम इतनी
खुबसूरत  
तुम्हे देख
शर्म से छुप जाए 
चौदहवी का चाँद भी,

जुल्फें
इतनी घनेरी 
घटाएं जो देख ले 
बदल ले रास्ता,

आँखें 
इतनी नशीली 
जिसे एक नज़र देखो
वो होश खो दे,

तुम्हारे अधरों की
सुर्खी 
फीकी कर देती है
डूबते सूरज की 
लालिमा को,

तुम्हारे 
होठों से गाये
गीतों के सुर,
पीछे छोड़ देते है
सुरों के हर बंधन को,

तुम्हारे हाथों के 
स्पर्श को 
लालायित रहता है 
चमन का
हर एक गुलाब,

तुम्हारे पाँव के स्पर्श 
मात्र से 
आ जाती है
वीरानो में
बहार, 

तुम्हारे स्पर्श 
मात्र से 
धमनियों में
लहू हो जाता है
बेकाबू,

तुम्हारे आलिंगन का
सुखद अहसास,
सर्वोपरि है,
संसार के सभी सुखों से,


         *******राघव विवेक पंडित  





Friday 23 March 2012

मेरा गाँव


मैं गाँव से चला कुछ
ख्वाब सजाये 
वो दरिया 
वो पनघट 
वो बस्ती
शहर ने सभी भुलाए, 

कहाँ से चला
कहाँ आ गया मैं,
दर दर भटकता 
चला जा रहा मैं,

खुद से ही खुद का पता 
पूछता हूँ,
वो दरिया, वो पनघट,
वो नीम की ठंडी हवा 
पूछता हूँ,

भटकते भटकते
कहाँ आ गया मैं, 
गाँव को अपने देख
घबरा गया मैं,
चारों तरफ अँधेरा
और सन्नाटा, 
अब गाँव में लोग नहीं, 
रहते है  खंडहर 

मुझे देख खंडहरों से
आवाज़ आई 
क्या तू शहर से आया है 
तू ही बता 
जो शहर गए थे क्या 
वो आयेंगे 
या हम इंतज़ार में
यू ही बिखर जायेंगे,


उनके इंतज़ार में
माँ बाप के 
आंसू ही सुख गए, 
आँखे पथरा गई 
प्राण ही रूठ गए,

उन्हें कैसे बताऊँ 
शहर के पत्थर के जंगल में
मैं खुद पत्थर हो गया, 
मुझसे उस जंगल में
जो गाँव से गया था मेरे साथ 
वो इंसान कहीं खो गया,


               *******राघव विवेक पंडित 

Wednesday 21 March 2012

स्त्री


ह्रदय 
इतना कोमल जैसे 
पंखुड़ी गुलाब की,
 
आँचल 
इतना विशाल 
जिसमे है संसार के 
सभी जीवों और प्राणियों 
के लिए ममता,
सहनशक्ति 
धरा सी
सेकड़ों वर्षों से 
समाज के विभिन्न प्रकार के 
सेकड़ों प्रहारों को  
झेलती 
लेकिन अडिग 
अपने ममता रूपी
आचरण के साथ,

अपने बच्चों की
रक्षा के लिए जो रूप धरे
दुर्गा का,

अपनी धरती माँ की
रक्षा के लिए जो रूप धरे
वीरांगना लक्ष्मीबाई का,

समाज ने जिसे 
शोषण के साथ साथ दिए 
विभिन्न रूप और नाम
लेकिन किसी भी  
रूप और नाम में 
उसने न खोई अपनी पहचान 
ममतामयी की,

न विचलित कर सका 
समाज का बड़े से बड़ा 
प्रहार,
जितने जुल्म 
उस पर बढ़ते गए, 
उसकी सहनशक्ति भी
उतनी बढती गई,

उसकी हिम्मत 
पर्वत सी,
उसकी शक्ति असीमित,
जननी मानवीय शक्ति की, 

हम उसे किसी रूप में भी बांधे 
चाहे कहे माँ
बहन 
बेटी
पत्नी 
हर रूप में अपूर्ण है उसकी व्यख्या,
वो है धरा सी व्यख्या विहीन,


        *******राघव विवेक पंडित