मैं खुदगर्ज़ अपने को कहूँ या खुदा को,
जिसने मुझे बनया मेरी वफ़ा को,
उसकी इबादत ही, मेरी वफ़ा है,
न करूँ इबादत,
तो वो मुझसे खफा है,
हर एक रिश्ता खुदगर्जी से भरा है,
इंसान का वजूद ही
खुदगर्जी से खड़ा है,
हर इंसान को
किसी न किसी से उम्मीद है
भगवान को भक्त से,
माँ बाप को संतान से,
पति को पत्नी से,
मालिक को नौकर से,
कवि को श्रोता से,
इंसान गली के कुत्ते को कुछ खाना देते हुए
ये सोचता है,ये मेरे घर की रखवाली करेगा,
जब खुदा ही खुदगर्ज़ है तो
उसकी खुदाई का क्या कसूर,
बाप के लहू का असर,
औलाद के लहू में होता है
कुछ न कुछ जरूर,
*********राघव पंडित***
जिसने मुझे बनया मेरी वफ़ा को,
उसकी इबादत ही, मेरी वफ़ा है,
न करूँ इबादत,
तो वो मुझसे खफा है,
हर एक रिश्ता खुदगर्जी से भरा है,
इंसान का वजूद ही
खुदगर्जी से खड़ा है,
हर इंसान को
किसी न किसी से उम्मीद है
भगवान को भक्त से,
माँ बाप को संतान से,
पति को पत्नी से,
मालिक को नौकर से,
कवि को श्रोता से,
इंसान गली के कुत्ते को कुछ खाना देते हुए
ये सोचता है,ये मेरे घर की रखवाली करेगा,
जब खुदा ही खुदगर्ज़ है तो
उसकी खुदाई का क्या कसूर,
बाप के लहू का असर,
औलाद के लहू में होता है
कुछ न कुछ जरूर,
*********राघव पंडित***
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