काश हर वर्ष में
एक मौत का दिन होता,
इंसान तड़प तड़प के
क्यों मौत के लिए रोता,
आँखे भी सालों साल न होती नम,
न मौत के इंतज़ार में रोता गम ,
न जाने कितने जिन्दगी के मारों को
मिलता सहारा,
जो रहे सदा तूफ़ान में, न मिला किनारा,
शायद
मर के ही इन ग़मों से जान छुट जाती,
पर साल का एक दिन भी नहीं,
हम गम जदों का साथी,
*********राघव विवेक पंडित**
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