मेरे सिर पर कपडा
माथे पर पसीना
पेट कभी आधा भरा
कभी खाली
तन पर एक फटी लंगोटी
पाँव में एक टूटी चप्पल
हाथों पर कुछ चोट के निशान
और कुछ जख्मों से बहता लहू
मेरी पत्नी भी
मेरे कंधे से कन्धा मिलाकर
दो वक़्त की रोटी के लिए
संघर्षरत
अपना घर
एक ऐसा सपना
जिसे शायद मेरी कई पीड़ियाँ भी
साकार न कर सके
मेरा घर
उस इमारत या घर की टूटी हुई
चारदीवारी
जिसे बनाने के लिए
मुझे मजदूरी पर रख्खा गया
मेरा बिस्तर
सीमेंट के खाली बोरे
और ओढने को एक फटी लंगोटी या
किसी ने रहम कर के दी
कोई पुरानी चादर
चुनाव के समय
मेरे गाँव का प्रधान
गाँव आने का आमन्त्रण और
रेल का टिकट दोनों भेजता है,
और वोट डालने के बाद
कहता है
बाय बाय
क्या यही मेरे जीवन का मूल्य है,
'एक वोटर'
सरकार भी बड़े बड़े वायदे करती है ,
बजट में भी हमारे जैसे लोगों के
कल्याण के नाम पर कुछ रखती है,
मेरे मरने और जीने से
क्या फर्क पड़ता है,
पर बजट में मेरे कल्याण के
नाम पर निकाले पैसे से
नेताजी का खानदान ऐश करता है,
जिन मकानों को हम
खून पसीना बहा के बनाते है,
उसमे रहने वाले लोगों के द्वारा
समाज की गंदगी कहे जाते है,
क्या मेरी यही पहचान है
वोटर
समाज की गंदगी
ओए इधर आ
इत्यादि
मैं सोचता हूँ
न जाने कब
मुझे इंसान समझा जायेगा,
क्या मेरे बच्चों को भी
कोई इन्ही नामों से बुलाएगा,
ये सोचकर
मन बहुत दुखी होता है,
अब तो
ये प्रतीत होता है
मेरा गरीब होना है शायद पाप,
मेरा जीवन
मेरे लिए और
इस समाज के लिए है शाप,
*******राघव विवेक पंडित***
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