रोशन करने के लिए खुद को
जाने कितनो को जला डाला,
किसी की मुहब्बत लुटी
तो किसी को मिटा डाला,
गरीबों की भावनाओं का
तुम मजाक बनाते हो
वक़्त पड़ने पर
किसी को माँ
किसी को बहन
किसी को बाप बनाते हो,
खाते हो तुम सैलाब का
खाते हो तुम दंगों का
खाते हो तुम भूखों का,
शांत होती है तुम्हारी भूख
गरीबों के आंसुओं
और उनका हक़ खाकर,
खुदा हो तुम दोजख के
न किसी से डरते हो,
मजलूमों पे सितम कर तुम
खुद को बुलंद करते हो,
तुम लाशों के सौदागर हो
तुम दुश्मन हो इंसानियत के,
तुम खा गए खनिज की खाद्दाने
तुम चबा गए बाग़ और बगीचे
तुम लील गए सेकड़ों ज़ाने
तुम खा गए अनाथों का भोजन,
तुम्हारे हाथ जो लग जाये
उसका विनाश है निश्चित,
दिन तो एक मुकरर है तुम्हारी भी
बर्बादी का,
वही दिन होगा
अब गरीबों और मजलूमों की आज़ादी का,
*******राघव विवेक पंडित
कल 29/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
यशवंत जी बहुत बहुत आभार की आपने मेरी कविता को इस काबिल समझा, आज ही मैंने अपना ब्लॉग देखा तो पता चला ...
Deleteआज के हालात में लोगों की भावनाओं को व्यक्त करती सुंदर और सशक्त रचना.
ReplyDeleteआपका हार्दिक धन्यवाद
Deleteसशक्त रचना...
ReplyDeleteव्यंग्य से भरपूर सुन्दर रचना.
ReplyDeleteआपका हार्दिक धन्यवाद
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