एक समय
तुम मेरी खूबसूरती की
तारीफ़ करते नहीं थकते थे,
मैं तुम्हे नहीं मिलती थी
तुम बेचैन हो जाते थे,
आज मुझे देखकर
तुम्हे कोफ़्त होती है
एक समय
तुम्हे मेरी बातें बहुत अच्छी लगती थी
मेरी आवाज
तुम्हे बहुत सुरीली लगती थी
आज मेरी बातों से तुम्हे
कोफ़्त होती है,
तुम आज अधेड़ उम्र के होकर
अपने आपको नवयुवक समझते हो
मुझमे तुम एक
नवयौवना का रूप चाहते हो
तुम मुझसे नहीं
मेरी आत्मा पर चढ़े
उस मांस के चीथड़े को प्यार करते थे,
जो समय के साथ बदलता है
मैंने प्यार किया है तुमसे
तुम्हारे रूप से नहीं
मैंने प्यार किया,
तुम्हे आत्मा से,
तुमने प्यार किया,
वासना से
मैं आज इस लायक नहीं,
कि तुम्हारी वासना की पूर्ति कर सकूँ,
तुम्हे मुझसे कोफ़्त हो गई
आज मैं चाहकर भी बिस्तर पर
एक नवयौवना सी नहीं दिख सकती
तो मुझसे तुम्हे कोफ़्त हो गई
मैंने अपना यौवन तुम्हारे सुख और
जिन्दगी
हमारे घर और बच्चों के पालन पोषण
में गुजारी,
आज उम्र के इस पड़ाव पर
जहाँ मुझे तुम्हारे प्यार और स्नेह
की जरुरत है
तुम्हे मुझसे कोफ़्त हो गई
मैंने पूरा जीवन
मैंने अपने पति को हर संभव सुख दिया
मैंने अपने बच्चों प्यार किया
मैंने अपनी कोई मर्यादा भंग नहीं की
मैंने अपनी सभी इच्छाओं का गलघोट कर
सिर्फ तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति की,
और इसके बदले मुझे
क्या मिला,
तुम्हारी कोफ़्त
क्या मैं गलत थी
सदियों से
इस पुरष प्रधान समाज के पास
इस सवाल का कोई जवाब नहीं,
क्योकि
इस सवाल का जवाब देते समय
इनका अहंकार आड़े आता है,
*******राघव विवेक पंडित**
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