नाकाम है चीखें
उन्हें जगाने में,
सेकड़ों मासूमों के खून के धब्बे
कम पड़ रहे है
उन्हें कुछ भी समझाने में,
उन्हें जुल्म की हर तस्वीर
हर चीख
फरेब नज़र आती है,
जब तक
दूर रहेगी आतंक की आग
उनके दामन से,
वो यूँ ही
अनजान बने रहेंगे
मजलूमों की चीखों
और जल्लादों से,
उनके लिए
बहुत बड़ा है
चांदी के सिक्के का आकार
देश के आकार से,
वो यूँ ही
अनजान बने रहें
तो वो वक़्त भी आ जाएगा
मजलूमों की दाहसंस्कार की
आग की लपटों से
उनके शीशे के घरों का
शीशा भी पिघल जाएगा,
तब उनके
कान फट जायेंगे
सुनकर मजलूमों के चीखों को,
सुन लो
संभल जाओ
ऐसा न हो टूट जाए
मजलूमों के सब्र का बाँध,
*******राघव विवेक पंडित
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