क्यों भाग रहा है
पता नहीं,
अनगिनित चीख और चिलाहट
सुनने के बाद भी
नहीं जाग रहा है,
अँधा हो गया है,
स्वार्थ में
बहरा हो गया,
लालच में
खबर नहीं
खुद की भी
ठोकर लगने पर गिरता है
फिर संभलता है,
फिर लगा भागने
पर किस ओर
मालूम नहीं,
ह्रदय है खाली
सिर्फ एक
मांस का टुकड़ा,
कब संवेदनाओं ने
दम तोडा
पता नहीं,
कब इंसान से मशीन बना
पता नहीं
बन गया है,
चलता फिरता मांस का टुकड़ा
बस चलता जा रहा है ... चलता जा रहा है
कहाँ
पता नहीं ...........
आज का इंसान,
*******राघव विवेक पंडित
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