रुठुं तो किससे
कोई अपना सा
लगा ही नहीं
किसी न
अपना कहा ही नहीं,
जो मिला स्वार्थ से
स्वार्थ पूर्ण होते ही
वो हो गया विलुप्त,
जैसे संसार से
डायनासौर,
लेकिन ये लौटेगा फिर
किसी स्वार्थ से
मिन्नते करता
माफ़ी मांगता
और स्वार्थ पूर्ति
के पश्चात
फिर गायब,
और बढ़ा गया
मेरे जीवन में एक और
स्वार्थी मित्र की संख्या,
******राघव विवेक पंडित
कोई अपना सा
लगा ही नहीं
किसी न
अपना कहा ही नहीं,
जो मिला स्वार्थ से
स्वार्थ पूर्ण होते ही
वो हो गया विलुप्त,
जैसे संसार से
डायनासौर,
लेकिन ये लौटेगा फिर
किसी स्वार्थ से
मिन्नते करता
माफ़ी मांगता
और स्वार्थ पूर्ति
के पश्चात
फिर गायब,
और बढ़ा गया
मेरे जीवन में एक और
स्वार्थी मित्र की संख्या,
******राघव विवेक पंडित
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