क्यों खुमारी सी
तुझ पे
मजहब की
छाई रहती है,
क्यों तुझे
इंसानियत की बात
न सुनाई देती है,
क्यों उलझी
रहती है तू
हजारों साल पुरानी किताबों में,
उनमे कहाँ
आज की
तस्वीर दिखाई देती है,
बचपन से ही
तुने निर्दोष
जीव और इंसानों का
खून बहते देखा है,
तू कितना भी धोये
मैंने आज भी
तेरी बातों और हाथों में
लहू देखा है,
कितना भी मुहब्बत का
नाम तेरी
जुबान पे सही,
बगल में तेरे सदा
लहू सना
खंजर रहता है,
तू कितना भी
खुद को
समाज में फैली
बुराइयों का
आलोचक कह,
तेरी बातों में
कहीं न कहीं
मजहब प्रेम रहता है,
********राघव विवेक पंडित
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