सिमट गया
सब कुछ कागज के
एक टुकड़े पर,
उस टुकड़े को कोई
डालर तो कोई रुपया
कहता है,
चारों पहर इंसान
उसी के फेर में रहता है,
इंसान की सभी
भावनाओं, रिश्तों और
क्रियाकलापों का
केंद्र बिंदु बन गया है
कागज़ का एक टुकड़ा,
गूंगे और बहरे
हो जाते है उसे देख
बड़े बड़े भाषण देने वाले,
बदल जाते है
सच और झूठ के मायने
कागज़ के
एक टुकड़े के दखल से,
सर्वोपरि हो गया
वो इंसान के
सभी संस्कारों से,
जिस कागज़ के टुकड़े का
अविष्कार
इंसान ने किया,
आज वही
कागज़ का टुकड़ा
इंसान को चला रहा है,
*******राघव विवेक पंडित
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