कब तक
मैं मिलता
बिछुड़ता रहूँ
फैले दामन को
अपने समेटता रहूँ,
बचपन से ही
मुश्किलों से
मैं अकेला
लड़ता रहा,
अकेले ही अपनी
राह पर
चलता रहा,
जिन्दगी से अकेला मैं
कब तक लडूं,
अपने दिल की लगी मैं
किस से कहूँ,
शायद अकेलापन ही
मेरी तकदीर है
मेरे पुर्व्जनम के
दुष्कर्मों की
सजा की जंजीर है,
*******राघव विवेक पंडित
मैं मिलता
बिछुड़ता रहूँ
फैले दामन को
अपने समेटता रहूँ,
बचपन से ही
मुश्किलों से
मैं अकेला
लड़ता रहा,
अकेले ही अपनी
राह पर
चलता रहा,
जिन्दगी से अकेला मैं
कब तक लडूं,
अपने दिल की लगी मैं
किस से कहूँ,
शायद अकेलापन ही
मेरी तकदीर है
मेरे पुर्व्जनम के
दुष्कर्मों की
सजा की जंजीर है,
*******राघव विवेक पंडित
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