बिक गई आत्मा
बिक गया परमात्मा
बिक गया ये शहर
बिक गया धर्मात्मा,
बिकता है बस झूठ यहाँ
सच का हो गया खात्मा,
दूसरों हक छीन के
जब रोटी कमाई जाती है
आत्मा की उसी समय
अर्थी उठाई जाती है,
चील कौओं की मजबूरी
खाना मुर्दा जानवर,
बदतर है इंसान
जीवों से
खा रहा जिन्दा आदमी,
कोई रोये
आंसू बहाए
मरे कोई तड़पकर,
बेअसर है हर दर्द
जब मर चुकी आत्मा,
आत्मा के मरते ही
मर गई इंसानी भावना
मांस का चिथड़ा सा
घूमता है इंसान
अब यहाँ वहां,
*******राघव विवेक पंडित
बिक गया परमात्मा
बिक गया ये शहर
बिक गया धर्मात्मा,
बिकता है बस झूठ यहाँ
सच का हो गया खात्मा,
दूसरों हक छीन के
जब रोटी कमाई जाती है
आत्मा की उसी समय
अर्थी उठाई जाती है,
चील कौओं की मजबूरी
खाना मुर्दा जानवर,
बदतर है इंसान
जीवों से
खा रहा जिन्दा आदमी,
कोई रोये
आंसू बहाए
मरे कोई तड़पकर,
बेअसर है हर दर्द
जब मर चुकी आत्मा,
आत्मा के मरते ही
मर गई इंसानी भावना
मांस का चिथड़ा सा
घूमता है इंसान
अब यहाँ वहां,
*******राघव विवेक पंडित
आत्मा के मरते ही
ReplyDeleteमर गई इंसानी भावना
मांस का चिथड़ा सा
घूमता है इंसान
अब यहाँ वहां,
बहुत ही बेहतरीन रचना.....
बिना शुद्ध आत्मा के ये शरीर निर्जीव है....