Wednesday 9 May 2012

बिक गई आत्मा
बिक गया परमात्मा
बिक गया ये शहर
बिक गया धर्मात्मा,

बिकता है बस झूठ यहाँ
सच का हो गया खात्मा,
दूसरों हक छीन के
जब रोटी कमाई जाती है
आत्मा की उसी समय
अर्थी उठाई जाती है,

चील कौओं की मजबूरी
खाना मुर्दा जानवर,
बदतर है इंसान
जीवों से
खा रहा जिन्दा आदमी,

कोई रोये
आंसू बहाए
मरे कोई तड़पकर,
बेअसर है हर दर्द
जब मर चुकी आत्मा,

आत्मा के मरते ही
मर गई इंसानी भावना
मांस का चिथड़ा सा
घूमता है इंसान
अब यहाँ वहां,

*******राघव विवेक पंडित




1 comment:

  1. आत्मा के मरते ही
    मर गई इंसानी भावना
    मांस का चिथड़ा सा
    घूमता है इंसान
    अब यहाँ वहां,
    बहुत ही बेहतरीन रचना.....
    बिना शुद्ध आत्मा के ये शरीर निर्जीव है....

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