राहे जिन्दगी में बहुत कांटे है
बहुत तकलीफ में गुजरती अपनी रातें है
दिन के शोर में दब जाती अपनी आहें है,
हमरे दर्द और सुकून की मिलती नहीं राहें है
जब भी तड़प के जोर से चिल्लाता हूँ
भीड़ में भी खुद को अकेला ही पाता हूँ,
पूरा शहर मानो पत्थर का हो गया है,
इन्सां का इन्सां के लिए दर्द कहीं खो गया है,
मैं अपने बोलने का हक खो चूका हूँ,
बेजमीरों की भीड़ में कहीं खो गया हूँ,
मुझे दिन के उजाले से डर लगता है
सारा शहर जंग के मैदान सा लगता है,
रात का सन्नाटा बहुत सुकून लाता है,
न उसमे मैं, न कोई साया नज़र आता है,
इन्सां के लिए
हर मौसम की अब एक ही तासीर है,
जिन्दा रहना एक मजबूरी
और मार दिया जमीर है
*******राघव विवेक पंडित
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