तुम हो
कभी न सूखने वाली
प्रेम की नदी,
जिसमे कितना भी विष डाले
उसका जल सदेव
मीठा ही रहता है,
तुम हो व्याकरण से परे
शब्दों की
मधुर स्वर माला
जो वर्षों वर्ष सुनने के बाद
मन आज भी उतना ही
आतुर होता है जितना
प्रथम मिलन की संध्या पर,
तुम मेरे करीब होती हो
तो जन्म लेते है
सेकड़ों सपने,
जो शायद
तुम न मिलती
तो कभी साकार न होते,
सासें लेने लगती है
वो आकांक्षाएं
जो मर चुकी थी,
*******राघव विवेक पंडित
*******राघव विवेक पंडित
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